जयपुर के निर्माता और खगोलशास्त्र के प्रणेता सवाई जयसिंह द्वितीय का जीवन परिचय | Maharaja Sawai Jai Singh 2 History Hindi
सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने शासनकाल में जयपुर को एक प्रमुख सांस्कृतिक और शैक्षिक केंद्र बनाया। उन्होंने विज्ञान, गणित, ज्योतिष, और वास्तुशास्त्र में अपनी रुचि दिखाई और उन्होंने जयपुर को एक विज्ञान और गणित केंद्र के रूप में प्रमुख बनाने के लिए कई योजनाएं आयोजित की। उनकी प्रमुख रचनाएं में से एक है "जयसिंहीति" जो गणितीय सिद्धांतों पर आधारित है।
सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने शासनकाल में बड़े पत्रिका और नृत्यशास्त्र के पुनर्निर्माण का कार्य किया और जयपुर को अपने दौर में एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र बनाया। उनका योगदान राजस्थान के इतिहास में महत्वपूर्ण है और उन्हें विशेष रूप से गणित, ज्योतिष, और वास्तुशास्त्र के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए याद किया जाता है।
सवाई जयसिंह (द्वितीय) का जीवन परिचय
Sawai jaisingh (II) : सवाई राजा जयसिंह (द्वितीय) का जन्म 3 नवम्बर, 1688 ई. को आमेर के महल में राजा बिशनसिंह राठौड़ की रानी इन्द्रकुंवरी के गर्भ से हुआ था। उस समय राजा बिशनसिंह की आयु केवल 16 वर्ष थी, अत: स्वाभाविक है कि राजा जयसिंह की माता की आयु और भी कम रही होगी। बालक (सवाई जयसिंह) का मूल नाम विजयसिंह था और छोटे भाई का नाम जयसिंह था।
कहा जाता है कि जब विजयसिंह आठ वर्ष का था, उसे औरंगज़ेब से मिलवाया गया। जयसिंह अप्रॅल 1696 ई. में बादशाह के समक्ष प्रस्तुत हुआ। उसकी परीक्षा करने के विचार से बादशाह औरंगज़ेब ने उसके दोनों हाथ पकड़कर पूछा- ‘अब तू क्या कर सकता है?‘ बालक विजयसिंह ने बुद्धिमानी के साथ तुरन्त उत्तर दिया- ‘अब तो मैं बहुत कुछ कर सकता हूँ, क्योंकि जब पुरुष औरत का एक हाथ पकड़ लेता है, तब उस औरत को कुछ अधिकार प्राप्त हो जाता है। आप जैसे बड़े बादशाह ने तो मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए हैं, अत: मैं तो सब से बढ़कर हो गया।’ उसके उत्तर से प्रसन्न होकर बादशाह ने कहा कि- 'यह बड़ा होशियार होगा, इसका नाम सवाई जयसिंह (अर्थात मिर्जा राजा जयसिंह से बढ़कर) रखना चाहिये।' तदनुसार बादशाह ने उसका नाम जयसिंह रखा और उसका असली नाम विजयसिंह उसके छोटे भाई को दिया।
जयसिंह आमेर का शासक कब बना ?
महाराजा विष्णु सिंह का निधन हो जाने पर उनके पुत्र जयसिंह आमेर का शासक बना। इनका वास्तविक नाम विजयसिंह था। परन्तु इनके रणकौशल से मुग्ध होकर बादशाह औरंगजेब ने इनका नाम जयसिंह रख इन्हे सवाई का ख़िताब दिया। अतः ये सवाई जय सिंह नाम से प्रसिध्द हुए।
महाराजा सवाई सिंह कूटनीतिज्ञ ,प्रसिध्द योध्दा ,संस्कृत एवं फ़ारसी व साथ ही गणित और ज्योतिष का अच्छा ज्ञाता था। विद्यानुरागी होने के अलावा वह वास्तु-शिल्प के प्रति भी गहन रूचि रखता था। 1727 ई. में उसने जयनगर ( वर्तमान जयपुर ) की स्थापना की। नगर का नक्शा पंडित विद्याधर भट्टाचार्य (बंगाल निवासी ) नामक प्रसिध्द वास्तुविद की देखरेख में बनवाया गया।
1725 ई. में सवाई जयसिंह ने नक्षत्रो की शुध्द सारणी जीज मुहम्मद शाही बनवाई तथा जयसिंह कारिका नामक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की। महाराजा सवाई जयसिंह खगोलशास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे।
सवाई जयसिंह के दरबार का अन्य ज्योतिषशास्त्री व खगोल शास्त्री केवलराम था, जो सन 1725 ई. में जयसिंह की खगोलशास्त्र के प्रति रूचि की जानकारी मिलने पर गुजरात से इनके दरबार में आया। केवलराम ने खगोल विज्ञान के आठ ग्रंथ जयविनोद सारणी, तारा सारणी, मिथ्याजिवछाया सारणी, दुकपक्ष सारणी, जयविनोद, रामविनोद, दुकपक्ष ग्रंथ, एवं ब्रह्म प्रकाश, की रचना की।
जंतर-मंतर का निर्माण
1734 ई. में उसने जयपुर में एक बड़ी वेधशाला जंतर-मंतर का निर्माण करवाया , जो देश की सबसे बड़ी वेधशाला है। जयपुर वेधशाला में 14 यंत्र है जो समय मापन, सूर्य व चन्द्र ग्रहण की भविष्यवाणी करने, तारो की गति एवं स्थिति जानने , सौरमंडल के ग्रहो के दिक्पात आदि जानने में बहुत सहायक है। इस वेधशाला का निर्माण जयसिंह ने 1728 ई. में अपने निजी निरीक्षण व देखरेख में प्रारम्भ करवाया जो 1734 ई. में पूर्ण हुआ। इस वेधशाला के सम्राट यंत्र (विशाल सूर्य घडी ) जयप्रकाश यंत्र एवं राम यंत्र प्रमुख है। जयसिंह ने ऐसी ही चार वेधशालाएँ दिल्ली, उज्जैन, बनारस, एवं मथुरा में बनवाई।
जंतर-मंतर को यूनेस्को की विश्व विरासत सूचि में कब शामिल किया ?
यूनेस्को ने 1 अगस्त, 2010 को जयपुर के जंतर-मंतर को यूनेस्को की विश्व विरासत सूचि में शामिल किया। इस सूचि में शामिल होने वाली यह राजस्थान की पहली सांस्कृतिक धरोहर थी।
सवाई जयसिंह के दरबार का सर्वाधिक प्रसिध्द साहित्यकार श्री कृष्ण भट्ट था ,जिसे सवाई जयसिंह ने कवि कलानिधि एवं राम रासाचार्य की उपाधि से अंलकृत किया। कृष्ण भट्ट ने राम क्रीड़ाओं पर राघवगीतम ( रामरासा ) नामक प्रसिध्द ग्रन्थ की रचना की। इसके अलावा वेदान्त पंचविंशति , ईस्वरविलास महाकाव्य , पद्य मुक्तावली , वृत्त मुक्तावली , प्रशस्तिमुक्तावली ,सरस रसास्वाद ,रामगीतम ,सुंदरी स्तवराज आदि ग्रंथो की रचना की।
सवाई जयसिंह द्वारा किए गए कार्यों का उल्लेख
सवाई जयसिंह ने मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा बनवाये गए जयगढ़ दुर्ग का कार्य पूर्ण करवाया एवं मराठो से रक्षा हेतु नाहरगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। इनके अलावा सिसोदिया रानी का महल बनवाया एवं मानसागर झील बनवाकर उसमे जल महल का निर्माण करावाया। इस जल महल का निर्माण कार्य सवाई प्रतापसिंह के काल में पूर्ण हुआ। जयसिंह ने गोवर्धन पर्वत पर गोवर्धनजी का मंदिर बनवाया तथा अपने महलो (चंद्र महल ) के पास ही गोविन्द देवजी का मंदिर बनवाया। इसके अलावा सिरहड्योढी में कल्किजी का मंदिर निर्मित करवाया।
साहित्य-रचना और यज्ञ-परंपरा
महाराजा सवाई जयसिंह के दरबार में संस्कृत और ब्रजभाषा साहित्य, स्थापत्य, धर्मशास्त्र, ज्योतिष, खगोल, इतिहास-लेखन, आदि क्षेत्रों में अनेक मौलिक रचनाएं की गयीं और सम्पूर्ण भारतीय मनीषा की इस अकादमिक-योगदान से बड़ी उन्नति हुई। अनेक नए धर्मशास्त्र भी रचे गये क्यों कि इनकी कर्मकांड और धर्मशास्त्र में बड़ी रुचि व निष्ठा थी। इनके समय के सबसे प्रसिद्ध विद्वान पंडित जगन्नाथ सम्राट, पंडित पुण्डरीक रत्नाकर, विद्याधर चक्रवर्ती, शिवानन्द गोस्वामी, श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि आदि थे। मूलतः आन्ध्र से आये तैलंग पूर्वजों के वंशज ब्रजनाथ भट्ट भी इनके समय के प्रसिद्ध कवि विद्वानों में से थे। इन्होंने 'ब्रह्मसूत्राणभाण्यवृत्ति' और 'पद्मतरंगिणी' की रचना की। श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि ने इनके समय में अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमें मुख्य 'ईश्वर विलास महाकाव्य भी है, जिसमें सवाई जयसिंह द्वारा 'अश्वमेध यज्ञ' करवाने का 'आँखों देखा हाल' वर्णित है। जेम्स टॉड ने लिखा है " सवाई जयसिंह ने बहुत-सा धन खर्च कर के यज्ञशाला बनवाई थी और उसके स्तंभों और छत को चांदी के पत्तरों से मंडवाया था।
आमेर पर हमले और अपमानित जयसिंह
जयसिंह के छोटे भाई विजयसिंह, बादशाह को खुश करने के लिए अपनी बहन का विवाह बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) से करवाना चाहते थे। उन्होंने इसकी खबर दिल्ली भेज दी तथा बुद्धसिंह हाडा को छुट्टी जाते समय रास्ते में रोक कर उन से सामोद में यह विवाह करवा दिया। नये बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) ने इसके बाद राजस्थान पर चढ़ाई की। जनवरी 1708 ई० में वह आमेर पहुँचा और उसे खालसा कर लिया। जयसिंह से आमेर की जागीर जब्त करके बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) द्वारा 10 January 1708 को उनके छोटे भाई विजयसिंह (चीमाजी) को अनेकानेक महंगे उपहारों सहित दे दी गयी। सवाई जयसिंह का राजनैतिक कद घटा कर एक मामूली 'मनसबदार' के रूप में कर दिया गया।
बादशाह इसके बाद अजमेर होकर दक्षिण के लिए अपने भाई कामबक्श से मुकाबला करने को बढ़ा। आमेर और जोधपुर के दोनों राजा मंडलेश्वर के इलाके तक उसके साथ ही गये। जब उन्हें यह आशा नहीं रही कि बादशाह उनके इलाके उन्हें वापस लौटाएगा तो उन्होंने दुर्गादास राठौड़ की राय से, जब बादशाह नर्बदा नदी पार करने को रवाना हुआ, 20 April 1708 वैशाख सुदी 13 को बादशाही-शिविर छोड़ दिया और वे राजपूताना की ओर वापस रवाना होकर मेवाड़ उदयपुर पहुँचे।
यहाँ महाराणा प्रताप के पुत्र और उत्तराधिकारीराणा अमरसिंह ने इनका स्वागत किया तथा अपनी पोती जयसिंह को ब्याही। यहाँ से तीन राजाओं की 30 हजार सेना ने संयुक्त-रूप से जोधपुर पर हमला करके 8 July 1708 ई० को उसे अपने अधिकार में कर लिया। राजा अतसिंह जोधपुर के जयसिंह ने टीका किया। यहाँ से उन्होंने हिन्दुस्तान के अनेक राजाओं को मुगलों के विरुद्ध एकत्र होने संबंधी पत्र भी लिखे।
जोधपुर से विजय सिंह शासित आमेर पर अधिकार करने को दो सेनाएँ भेजी गयीं। एक दुर्गादास राठौड़ के नेतृत्व में, जिसका सैयदों से काला डेरा के पास युद्ध हुआ। दूसरी सेना में, महाराजा जयसिंह का दीवान रामचन्द्र और श्यामसिंह के अधीन 20 हजार घुड़सवार थे। इनका रतनपुरा के पास आमेर के फौजदार हुसैन खाँ से युद्ध हुआ, जिसमें उन्होंने उसे परास्त करके आमेर पर अपना अधिकार कर लिया।
इसके बाद इन दोनों राजाओं के विरुद्ध मेवात के फौजदार सैयद हुसेन खां, अहमद खां फौजदार बैराठ सिधाना और गारात खां फौजदार नारनोल को सांभर भेजा गया । दोनों राजाओं के इन फौजदारों से सांभर में 3 October 1708 को भीषण युद्ध हुआ, जिसमें मुगलों की विजय हुई। युद्ध के बाद विजय की खुशी में मुगलों की महफिल हो रही थी। इसी समय राव संग्रामसिंह उनियारा के नेतृत्व में नरुका लड़ाके वहाँ पहुँचे और एक रेत के टीबे पर चढ़े, जिसके नीचे सैयद आदि शराब की महफिल कर रहे थे। नरुकों ने उन पर एकाएक बन्दूकों और तीरों से भयानक हमला किया। उसमें सब मुग़ल फौजदार मारे गये तथा मुगलों की जीती हुई बाजी हाथ से निकल गई।
फिर जयसिंह ने एक पत्र बादशाह के विरुद्ध दुर्गादास को लिखा कि "उदयपुर महाराणा से बात की जाए ...मराठों को मिला कर मुग़लों के विरुद्ध राजपूतों को वही करना चाहिए जो 'हिन्दुस्तान' के लिए गौरव की बात हो।"
बादशाह बहादुरशाह जब दक्षिण से वापस लौटा, तो उसने यह जरुरी समझा कि किसी तरह जोधपुर और आमेर (जयपुर) दोनों राजाओं से समझौता किया जाए। इन्हें लाने के लिए उसने बुधसिंह हाड़ा राजा बून्दी को भेजा, जिनके मारफत 21 June 1710 को ये अजमेर के पास बादशाह के सामने हाजिर हुए। बादशाह ने इनके जब्त किये राज्य वापस लौटा दिए और इन दोनों को 4000 जात 4000 सवार के मनसब भी दिये। उस समय तक भी राजपूतों का मुगलों पर बिल्कुल विश्वास नहीं था, इसलिए जब सवाई जयसिंह अजमेर में बादशाह के शिविर में गये तब अजमेर के तमाम पहाड़ तथा घाटियाँ राजपूत-सैनिकों से भरी हुई थीं। मनसब बढ़ने और इलाके वापस आने पर भी उन्हें बहादुरशाह की नीयत पर कभी भी पूर्ण विश्वास नहीं हुआ।
मराठे और जयसिंह
अक्टूबर 1713 ई० में इन्हें बादशाह फ़र्रुख सियर ने मालवा की सूबेदारी प्रदान की। इन्होंने वहाँ की अनेक बगावतें दबाई व मरहठों के उपद्रव भी कुचले। मरहठों की एक बड़ी सेना जब मालवे में घुसी तब इन्होंने पलसूद के पास उसे बड़ी करारी हार दी। मराठी सेना के लोग भाग कर पलसूद में ठहरे थे। जयसिंह ने रात में ही उन पर हमला कर दिया। इनकी सेना को देखते ही वे भाग निकले व नर्वदा नदी पार कर गये। उनकी लूट का सब माल वहीं रह गया। मालवा में छत्रसाल बुन्देला भी इनके साथ थे। 1715 ई० में इनको दिल्ली बुला लिया गया। तब इनकी अनुपस्थिति में इनके धाभाई रुपाराम को इन्होंने वहां नायब बना कर रखा। 1717 तक ये मालवा के सूबेदार रहे। बादशाह फ़र्रुख सियर ने भीमसिंह हाडा राजा कोटा को बून्दी की रियासत दे दी थी और उसने बून्दी पर कब्जा भी कर लिया था। जयसिंह ने प्रयास करके बादशाह से बून्दी वापस राजा बुधसिंह हाडा को दिलवायी।
सवाई जयसिंह का स्थापत्य-कला को योगदान
जयपुर : शिल्पशास्त्र के आधार पर नई राजधानी
महाराजा सवाई जयसिह ने एक नया राजधानी-नगर बसाने का विचार आमेर से दक्षिण में छ: मील दूर 29 नवम्बर 1727 को पं० जगन्नाथ सम्राट के माध्यम से शिलान्यास करते हुए क्रियान्वित किया। सम्पूर्ण नगर-योजना दरबार के प्रमुख वास्तुविद विद्याधर चक्रवर्ती की तकनीकी सलाह से निर्मित हुई। नक्शा पहले कपड़े पर अमिट काली स्याही से तैयार किया गया। सवाई ने तालकटोरा तालाब बनवाया, मानसागर झील में 'जलमहल' निर्मित करवाया, प्राचीन कछावा किले जयगढ़ का पुनरुद्धार किया, आमेर के जो महल-भाग जयसिंह (प्रथम) ने बनवाए थे, उन सब का विस्तार किया तथा सुदर्शनगढ़ का महल भी बनवाया जिसको आज नाहरगढ़ का किला भी कहते हैं। विविध कला-कौशल विकास हेतु '64 कारखाने' अर्थात् अलग-अलग विभाग स्थापित किये, नगर के बाहर आगरा रोड पर इनके द्वारा अपनी सिसोदिया रानी के लिए एक ग्रीष्मकालीन बाग़ और महल बनवाया गया। शहर में कल्कि का मंदिर और यज्ञस्तम्भ के पास भगवान विष्णु का मंदिर भी इन्होनें बनवाया। मथुरा में सीतारामजी का और गोवर्धन में गोवर्धनधारी के मंदिर भी इन्होनें ही बनवाये।
सवाई जयसिंह के नगर का वास्तु-कौशल
नए नगर को 9 सामान क्षेत्रफल वाले खंडों (चौकड़ियों) में बांटा गया था, जिसके दो खण्ड मुख्य राजमहल 'चन्द्रमहल', विभिन्न राजकीय कारखानों, कुछ खास मंदिरों तथा वेधशाला के लिए आरक्षित रखे गये थे। सूरजपोल दरवाज़े से चांदपोल दरवाज़े तक सड़क की लम्बाई दो मील और चौड़ाई 120 फीट रखी गयी। इसी महामार्ग पर मध्य में तीन सुन्दर चौपड़ों का निर्माण भी प्रस्तावित किया गया जो यहाँ लगे हुए फव्वारों के लिए भूमिगत जलस्रोतों से जुड़े थे। शहर के चौतरफ बनाये गए परकोटे की दीवार 20 से 25 फुट ऊंची तथा 9 फीट चौड़ी रखी गयी। इस परकोटे में (शहर में आने - जाने के लिए) सात सुन्दर प्रवेशद्वारों का निर्माण भी किया गया। रात को नगर-सुरक्षा हेतु इन्हें बंद कर दिया जाता था। सुन्दर राजसी राजमहल, भव्य-पाठशालाएं, बड़ी बड़ी, चौड़ी और एक दूसरे को समकोण पर विभाजित करती एकदम सीधी सड़कें, एक सी रूप-रचना के आकर्षक बाज़ार, जगह-जगह कलात्मक मंदिर, (राजा राम की अयोध्या के वास्तु से प्रभावित) आम-भवन-संरचनाएं, सड़कों के किनारे लगे घने छायादार पेड़, पीने के पानी का समुचित प्रबंध, व्यर्थ-जल-निकासी की उपयुक्त व्यवस्था, उद्यान, नागरिक-सुरक्षा, आदि इन सब बातों का पूर्व-नियोजन सवाई जयसिंह ने अपने नगर-कौशल में सफलतापूर्वक किया।
जयपुर पर केन्द्रित संस्कृत महाकाव्य
कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने सन 1947 में 476 पृष्ठों में प्रकाशित अपना एक यशस्वी काव्य-ग्रन्थ जयपुर-वैभवम तो जयपुर के नगर-सौंदर्य, दर्शनीय स्थानों, देवालयों, मार्गों, यहाँ के सम्मानित नागरिकों, उत्सवों और त्योहारों आदि पर ही केन्द्रित किया था।
खगोलशास्त्र और सवाई जयसिंह
जयपुर के पुराने राजमहल' चन्द्र महल' के उत्तर में जयपुर नरेशों के आराध्य देव गोविन्ददेव जी का मन्दिर है, दुनिया भर में जंतर मंतर के नाम से मशहूर विशाल वेधशाला भी यहीं मौजूद है।
पत्थर के विशाल यंत्र और ग्रह नक्षत्रों की गणना के लिए बने इन गणना-उपकरणों के निर्माता सवाई जयसिंह को बचपन से ही गणित और खगोल ज्योतिष में बड़ी गहरी दिलचस्पी थी।
किन्तु महाराजा जयसिंह को खगोलविद्या में 'दीक्षित' करने का बड़ा श्रेय पंडित जगन्नाथ सम्राट को है। राजा को वेद पढ़ाने के लिए नियुक्त मराठी सम्मानित विद्वान भारतीय ज्योतिर्विज्ञान को योगदान देते हुए सम्राट जगन्नाथ ने 'सिद्धान्त कौस्तुभ' की रचना की तथा यूक्लिड के रेखागणित का अरबी से संस्कृत में अनुवाद किया।
इन्होंने जयपुर में सन 1732 से 1734 के बीच मथुरा, बनारस और उज्जैन में भी अपने वास्तुविद विद्याधर के मार्गदर्शन में सम्राट जगन्नाथ द्वारा विकसित उन्नत यंत्रों- सम्राट-यन्त्र (लघु), नाडी-वलय-यन्त्र, कांति-वृक्ष-यन्त्र, यंत्रराज, दक्षिनोदक-भित्ति-यन्त्र, उन्नतांश-यन्त्र, जयप्रकाश-यन्त्र, सम्राट-यन्त्र (दीर्घ), शषतांश यंत्र, कपालीवलय यन्त्र, राशिवलय यन्त्र, चक्र यंत्र, राम यन्त्र, त्रिगंश यन्त्र आदि से युक्त नई वेधशालाएँ बनवाई।
निष्कर्ष
सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने शासनकाल में विज्ञान, गणित, खगोलशास्त्र, और स्थापत्य कला में महत्वपूर्ण योगदान किया। उनकी दृष्टि और योजनाएं आज भी भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। उनकी कार्यशैली और दूरदर्शिता ने जयपुर को एक प्रमुख सांस्कृतिक और शैक्षिक केंद्र बना दिया, जो आज भी उनके योगदान का गवाह है।
FAQ.
1. सवाई जय सिंह द्वितीय कौन थे?
-सवाई जय सिंह द्वितीय कछवाहा राजपूत वंश के महाराजा थे, जिन्होंने 18वीं शताब्दी के दौरान भारत के राजस्थान में अंबर राज्य (जिसे बाद में जयपुर के नाम से जाना जाता था) पर शासन किया था।
2. सवाई जय सिंह द्वितीय किस लिए जाने जाते हैं?
- सवाई जय सिंह द्वितीय को खगोल विज्ञान, गणित और शहरी नियोजन में उनके योगदान के लिए जाने जाते है। वह जयपुर शहर के संस्थापक हैं, जो अपने सुनियोजित लेआउट और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है।
3. खगोल विज्ञान में सवाई जय सिंह द्वितीय के योगदान क्या हैं?
- सवाई जय सिंह द्वितीय ने पूरे भारत में कई खगोलीय वेधशालाओं का निर्माण कराया, जिन्हें जंतर मंतर के नाम से जाना जाता है। ये वेधशालाएँ खगोलीय घटनाओं को मापने के लिए बड़े उपकरणों से सुसज्जित थीं और उन्होंने भारत में खगोल विज्ञान को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
4. सवाई जय सिंह द्वितीय ने जयपुर शहर क्यों बसाया?
- सवाई जय सिंह द्वितीय ने 1727 में अपनी नई राजधानी के रूप में जयपुर की स्थापना की क्योंकि वह शहरी विकास, व्यापार और प्रशासन पर ध्यान देने के साथ एक सुनियोजित शहर स्थापित करना चाहते थे। यह शहर अपने ग्रिड जैसे लेआउट और आश्चर्यजनक वास्तुकला के लिए जाना जाता है।
5. जंतर मंतर वेधशालाओं का क्या महत्व है?
- सवाई जय सिंह द्वितीय द्वारा निर्मित जंतर मंतर वेधशालाएं यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल हैं और खगोल विज्ञान के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थल हैं। इनका उपयोग खगोलीय घटनाओं की सटीक भविष्यवाणी करने और समय, खगोलीय पिंडों की स्थिति और अन्य खगोलीय डेटा की सटीक माप प्रदान करने के लिए किया जाता था।