वीर दुर्गादास राठौर का जीवन परिचय | Veer Durgaadaas Raathaur Ka Jeevan Parichay

वीर दुर्गादास राठौर का जीवन परिचय | Veer Durgaadaas Raathaur Ka Jeevan Parichay

वीर दुर्गादास राठौड़ राजस्थान के एक प्रमुख और बहादुर राजपूत योद्धा थे, जिन्होंने 17वीं सदी में अपने अद्वितीय सैन्य कौशल और देशभक्ति के लिए प्रसिद्धि प्राप्त की। वे मेवाड़ और आमेर (जयपुर) के शासकों के साथ महत्वपूर्ण संघर्षों में शामिल रहे और अपने साहसिक कार्यों के लिए याद किए जाते हैं।

वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़ ने अपनी वीरता और कूटनीति से मुग़ल शासक औरंगजेब की नींद उड़ा दी थी। दुर्गादास की सतर्कता से ही मारवाड़ के वारिस की जान बच सकी थी। 

वीर दुर्गादास राठौर का जीवन परिचय | Veer Durgaadaas Raathaur Ka Jeevan Parichay

दुर्गादास राठौर का जीवन परिचय 

अपनी जन्मभूमि मारवाड़ को मुगलो के आधिपत्य से मुक्त करने वाले veer durgadas rathore का जन्म 13 अगस्त 1638 को ग्राम सावला  हुआ था। दुर्गादास मारवाड़ के शासक महाराजा जसवंत सिंह के मंत्री आसकरण राठौड़ के पुत्र थे। उनकी माँ अपने पति और उनकी अन्य पत्नियों के साथ नहीं रहीं और जोधपुर से दूर रहती थी। दुर्गादास का पालन पोषण लुनावा नामक गाँव में हुआ। दुर्गादास सूर्यवंशी राठौड़ कुल के राजपूत थे। दुर्गादास के पिता का नाम आसकरण सिंह राठौड था जो मारवाड़ (जोधपुर) के महाराजा जसवन्त सिंह (प्रथम) के राज्य की दुनेवा जागीर के जागीदार थे। veer durgadas rathore की माता का नाम माता नेतकँवर मंगलियाणी था। दुर्गादास की माता अपने पति आसकरण जी से दूर सालवा जागीर के लूणवा (वर्तमान लूणावास) गाँव में रहती थीं। बचपन में दुर्गादास का लालन पोषण इनकी माता नेतकँवर ने ही किया और दुर्गादास मे स्वाभिमान और देशभक्ति के संस्कार कूट-कूट डाले। 

दुर्गादास के साथ घटी 1655 की घटना का वर्णन 

पिता आसकरण की भांति किशोर दुर्गादास में भी वीरता कूट- कूट कर भरी थी। सन् 1655 की घटना है, जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राजकीय राईका (ऊंटों का चरवाहा) लुणावा में आसकरण जी के खेतों में घुस गए। किशोर दुर्गादास के विरोध करने पर भी उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया, वीर दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर त्वरित गति से उस राज राईका की गर्दन उड़ा दी। इस बात की सूचना महाराज जसवंत सिंह के पास पहुंची तो वे उस वीर को देखने के लिए उतावले हो उठे और अपने सैनिकों को दुर्गादास को लाने का आदेश दिया। दरबार में महाराज उस वीर की निर्भीकता देख अचंभित रह गए। दुर्गादास ने कहा कि मैंने अत्याचारी और दंभी राईका को मारा है, जो महाराज का भी सम्मान नहीं करता है और किसानों पर अत्याचार करता है। आसकरण ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भयता से स्वीकारते देखा तो वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुआ कि यह आसकरण का पुत्र है। घटना की वास्तविकता को जानकर महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और तलवार भेंट कर अपनी सेना में शामिल कर लिया।

धरमाट के युद्ध में दुर्गादास राठौर 

दुर्गादास ने सन् 1658, 16 अप्रैल को मालवा के धरमाट के युद्ध में महाराजा के साथ भाग लिया, जो दारा शिकोह और औरंगजेब के मध्य लड़ा गया था। जसवंतसिंह बादशाह शाहजहाँ के कृपापात्र होने के कारण दारा की ओर से लड़ा। इस युद्ध में दुर्गादास ने अपूर्व वीरता का परिचय दिया था। 

दुर्गादास ने राजनीतिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सैन्य और कूटनीति:

मुगलों के खिलाफ संघर्ष: दुर्गादास ने मुगलों के खिलाफ कई महत्वपूर्ण लड़ाइयों में भाग लिया और उनकी सैन्य रणनीतियों के लिए प्रसिद्ध हुए।

मेवाड़ का समर्थन: उन्होंने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के साथ मिलकर मुगलों के खिलाफ संघर्ष किया, जिससे मेवाड़ के शाही अधिकारों की रक्षा हुई।

आमेर किले की रक्षा: 1708 में आमेर किले पर मराठों के आक्रमण के दौरान, उनके नेतृत्व में किले की रक्षा की गई और राजपूतों को एकजुट किया।

साहस और वीरता:

राजपूत एकता: उन्होंने राजपूतों को एकजुट किया और उनके बीच सामरिक एकता बनाई।

सैन्य नेतृत्व: उनके सैन्य कौशल और रणनीतिक दृष्टिकोण ने उन्हें एक प्रमुख राजपूत नेता बना दिया।

मुस्लिम शासकों के खिलाफ: दुर्गादास ने भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिम शासकों के खिलाफ संघर्ष किया और अपनी वीरता का परिचय दिया।

साहित्यिक और ऐतिहासिक संदर्भ:

इतिहास में स्थान: वे भारतीय इतिहास में उनके वीरता और शौर्य के लिए सम्मानित हैं।

साहित्यिक संदर्भ: उनके जीवन पर कई काव्य और साहित्यिक रचनाएँ लिखी गई हैं जो उनकी वीरता को उजागर करती हैं।

महाराजा जसवन्त सिंह की मृत्यु और अजीत सिंह का जन्म

1678 में जसवंत सिंह का अफ़्गानिस्तान में निधन हो गया और उनके निधन के समय उनका कोई उत्तराधिकारी घोषित नहीं था। औरंगजेब ने मौके का फायदा उठाते हुये मारवाड़ में अपना हस्तक्षेप जमाने का प्रयास किया। जसवंत सिंह के निधन के बाद उनकी दो रानियों ने नर बच्चे को जन्म दिया। इनमें से एक का जन्म के बाद ही निधन हो गया और अन्य अजीत सिंह के रूप में उनका उत्तराधिकारी बना।

जसवंत सिंह  मृत्यु के बाद औरंगजेब ने जोधपुर रियासत पर कब्ज़ा कर वहां शाही हाकिम को बैठा दिया। उसने अजीतसिंह को मारवाड़ का राजा घोषित करने के बहाने दिल्ली बुलाया। दुर्गादास अजीतसिंह के साथ दिल्ली पहुंचे। औरंगजेब के द्वारा अजीतसिंह को बंदी बनाने के प्रयास को विफल करते हुए दुर्गादास भी जोधपुर की और निकल गए और अजीत सिंह को सिरोही के पास कालिन्दी गांव में छोड़ गए। 

durgadas rathore ने मारवाड़ के सामंतो के साथ मिलकर छापामार शैली में मुग़ल सेनाओ पर हमले करने लगे। औरंगजेब की मृत्यु के बाद अजीत सिंह गद्दी पर बैठे तो दुर्गादास ने रियासत का प्रधान पद अस्वीकार कर दिया और उज्जैन चले गए।

अपनी वीरता और कूटनीति से उन्होंने मुग़ल शासक औरंगजेब की नींद उड़ा दी थी। मारवाड़ के शासक जसवंत सिंह के निधन के बाद जन्मे उनके पुत्र अजीत सिंह को दुर्गादास ने न केवल औरंगजेब के चंगुल से बचाया बल्कि उन्हें वयस्क होने पर शासन की बागडोर सौंपने में भी मदद की।

दुर्गादास ने मारवाड़ के सामंतो के साथ मिलकर छापामार शैली में मुग़ल सेनाओ पर हमले करने लगे। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद अजीत सिंह को जोधपुर का महाराजा घोषित किया गया। 

वीर दुर्गादास राठौर की मृत्यु 

दुर्गादास ने अपने कर्तव्यों को सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद और जो वादा उन्होंने जसवंत सिंह को दिया था, उसे पूरा किया। जोधपुर छोड़ कर सदरी, उदयपुर, रामपुरा, भानपुरा में कुछ समय तक रहे और फिर पूजा करने के लिए उज्जैन में आ गए। 22 नवंबर 1718 को शिप्रा के तट पर उज्जैन में वीर दुर्गादास राठौर की 81 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। लाल पत्थर में उनकी छतरी अभी भी चक्रतीर्थ, उज्जैन में है, जो सभी स्वतंत्रता सेनानियों और राजपूतों के लिए तीर्थ है। 

FAQ.

दुर्गादास राठौड़ का जन्म कब हुआ कहां हुआ?

- वीर दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त, 1638 को ग्राम सालवा में हुआ था। 

वीर दुर्गादास जयंती कब मनाई जाती है?

- 13 अगस्त को 

दुर्गादास राठौड़ के घोड़े का क्या नाम था?

- अर्बुद

दुर्गादास राठौड़ की छतरी कहाँ है?

- उज्जैन 

दुर्गादास राठौड़ के उपनाम क्या है ?

- दुर्गादास जी की वीरता और स्वामिभक्ति से प्रभावित हो जेम्स टॉड ने इनको 'राठौड़ों का यूलीसीज' एवं " मारवाड़ दुर्ग की बाहरी दीवार" कहा है। जबकि हीराचंद ओझा ने वीर दुर्गादास को मारवाड़ का " मारवाड़ काअणबिन्दिया मोती " कहा है ।

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